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Monday, February 28, 2011

धर्म और इश्वर के नाम पर क्यों हम एक दुसरे से लड़ते रहते हैं



हम सब कभी न कभी किसी न किसी बात को ले कर उस धर्म को और धर्म की आड में उस धर्म में माने जाने वाले आराध्य को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं जिसे हम मानते हैं और ऐसा करने वालो में कई बुद्धिजीवी लोग भी होते हैं जो कहते हैं इश्वर सिर्फ एक ही है.

ऐसा क्यों है मै आज तक समझ नहीं पाया हूँ और ना ही इस सवाल का जवाब मुझे उस व्यक्ति से मिल पाया है जो मेरे अनुसार विश्व के सबसे ज्ञानी दार्शनिकों में से एक थे वो थे मेरे दादा जी.

मैंने दादा जी से जब सवाल किया था "क्यूँ हम हमारे मेहतर को छूने से गुरेज करते हैं जबकि राम ने शबरी के जूठे बेर खाए थे" तो मुझे उस सवाल का संतोषजनक जवाब मिला था, लेकिन जब मैंने सवाल किया था "क्यों हम सब उस धर्म एवं इश्वर को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश करते रहते हैं जिसे हम मानते हैं तो जवाब मिला था "बेटा इस सवाल का जवाब मै पिछले ८० सालो से ढूँढने की कोशिश कर रहा हूँ लेकिन अभी तक नहीं मिला है और अंत समय तक ढूंढ पाऊँगा ये भी उम्मीद नहीं है, तो मै इस का जवाब तुम्हे कहा से दूं."

आगे उन्होंने कहा था " मै इस बात का जवाब शायद इस लिए नहीं ढूंढ पा रहा हूँ क्योंकि शायद मै भी पक्षपाती हूँ और उस धर्म का पक्ष लेता रहा हूँ जिस धर्म में मैंने जन्म लिया है और शायद यही इस सवाल का जवाब भी है, तो तुम ये कोशिश करना की कभी भी मानवता के अतरिक्त किसी और धर्म को धर्म मानना ही नहीं तो शायद तुम इस जवाब को ढूंढ लोगे"

मै मेरे दादा जी के चरणों की धुल भी नहीं हूँ तो मै ये तो कभी नहीं कहूँगा की मैंने इस सवाल का कोई जवाब ढूंढ लिया है लेकिन जो बात मेरे दादा जी नहीं कही थी मै उसी को सच मानूंगा और उनकी कही बात को आगे बढ़ाते हुए कहूँगा की मै ये मानता हूँ की इर्ष्या वश हम सभी अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करने में लगे रहते हैं, और यही कारण होता है दुसरे के धर्म और इश्वर को भी छोटा साबित करने की कोशिश करने के लिए

आप खुद ही देखिये यदि बात होती है देश की तो हम हमारे देश को पश्चिमी मुल्को से श्रेष्ठ साबित करने के लिए हमारी महान संस्कृति की दुहाई देते हैं, इसी तरह से जब बात होती है प्रदेश की तो हम उस प्रदेश को महान साबित करने की कोशिश में लग जाते हैं जिससे हम कोई सम्बन्ध रखते हैं देश या प्रदेश तो मात्र एक उदाहरण है यह बात हर उस विषय में लागू होती है जिसमे किसी न किसी तरह से हम एक दल या भीड़ के रूप में शामिल होते हैं और धर्म भी इसी तरह की भीड़ का एक हिस्सा है, और यदि हम हमारे धर्म को श्रेष्ठ साबित कर देते हैं तो स्वत: ही एक बहुत बड़ी आबादी से खुद को श्रेष्ठ साबित कर लेते हैं जो की हमारे दंभ को एक विजयी अह्सास दिला कर सुख प्रदान करता है

मै ये भी नहीं कहूँगा की हम ऐसा सब सोच समझ कर या जानबूझ कर के करते है, हम ये सब इस लिए करते है क्योंकि हम मानव स्वभाग की इन कमियों से अनभिग्य होते है और अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने की प्रव्त्ती के कारण धर्म के नाम पर लड़ते रहते है और जो कमी इस में बच जाती है उसे हमारे देश के कुछ नेता, मौलवी, साधू और पादरी पूरी कर देते हैं.

कुछ साधू, मौलवी, पादरी, पंडित और धर्मांध लोग मुझ पर नास्तिक होने का आरोप लगा सकते हैं मुझे काफ़िर कह सकते हैं, कुछ के अनुसार मै पापी भी कहलाऊँगा लेकिन मै ऐसे सभी व्यक्तियों को कहूँगा की नास्तिक तो वो लोग है जिन्हें इश्वर की आराधना, अल्लाह की इबादत और जीजस के सामने की जाने वाली प्रार्थना में अंतर दिखता है. मेरा मानना है की हर व्यक्ति की प्रार्थना करना उस व्यक्ति के क्षेत्र विशेष के अनुसार होता है ठीक उसी तरह जिस तरह किसी क्षेत्र विशेष की भाषा बोली और खाने का तरीका होता है. समय बीतने के साथ लोग एक क्षेत्र से दुसरे क्षेत्र में जाने लगे और अपने साथ न केवल खाना, पहनावा और बोली ले गए बल्कि इश्वर की प्रार्थना करने का तरीका भी ले गए तो इस बात पर इंसान को इंसान से बांटना और लड़ना कोई समझदारी की बात तो नहीं है .

कुछ लोग अभी भी खुद को श्रेष्ठ ही मानना चाहते है और इसके लिए वो अपने ही धर्म को श्रेष्ठ घोषित करेंगे तो मै हर धर्म के ठेकदार ( तल्ख़ शब्दों के लिए माफ़ी चाहूँगा लेकिन मै इससे अच्छा शब्द ढूंढ नहीं पाया था) से एक ही सवाल का जवाब चाहता हूँ की जिस सत्ता की प्रार्थना, पूजा या इबादत करने के लिए आप कह रहे हैं उस सत्ता को किसने बनाया, और यदि आपके पास कोई जवाब है तो मेरा यही सवाल है की उन्हें किसने बनाया और ये सवाल तब तक आता रहेगा जब तक हर धर्म का ठेकेदार ये नहीं कह देता की नहीं मालूम और मै दावे के साथ कह सकता हूँ की कुछ देर बाद हर धर्म के ठेकेदार के पास से इस सवाल का यही जवाब आएगा नहीं मालूम. मेरे इस विचार से तार्किक रूप से तो मैंने ये सिद्ध कर दिया है की वो परम सत्ता एक ही है तो फिर कैसे किसी धर्म या आराध्य को छोटा या बड़ा साबित किया जा सकता है


इस लेख का समापन करने के पहले बचपन में लिखी एक कविता की कुछ पंक्तिया लिखना चाहूँगा

पैगम्बर के पहले मुस्लिम नहीं था कोई,
जीजस के पहले कोई ईसाई नहीं था.

सिख और बौद्ध नहीं था कोई
नानक और बुद्ध के पहले

हिंदू कोई राम और कृष्ण के बाद भी नहीं था

तो फिर क्यूँ हम मजहब के नाम पर एक दुसरे का खून बहते हैं
पशु से इंसा बन गए क्यों फिर पशुता अभी भी दिखाते हैं


अंत करते हुए सिर्फ इतना ही कहूँगा की अगर मेरे लिखने से एक व्यक्ति भी अपने आप को बदल सका तो मेरा लिखना सफल हो जायेगा

धन्यवाद

Saturday, February 19, 2011

भारत में देशप्रेम एकता और क्रिकेट



कई दिनों से इस विषय पर कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था पर मौका नहीं मिल पा रहा था और समस्या ये भी थी की मै कोई अच्छी प्रस्तावना भी नहीं बना पा रहा था लेकिन आज पिता जी ने एक मौका दे ही दिया

आज पिता जी घर पहुंचे तो उनका मुझ से पहला सवाल था "क्या आज से क्रिकेट शुरू हो गए हैं" मेरे भांजे ने जवाब दिया हां हो चुके हैं

पिता जी से मेरा सवाल था आप तो क्रिकेट देखते नहीं हो आपको इसका ज्यादा शौक भीं नहीं है फिर आप क्यों पूँछ रहे थे और आपको कैसे पता चला की आज से क्रिकेट शुरू हो गए हैं

पिता जी ने जवाब दिया क्योंकि आज सारे रास्ते लोग भीड़ लगा कर पान और चाय की दुकानों पर खड़े दिखे थे, रास्ते में मुझे कई लड़ाईयां देखने को भी मिल जाती थी लेकिन आज सिर्फ लोगो में एक बात पर प्यार भरी बहस देखने को मिली कोई लड़ाई नहीं, बड़ा अच्छा लगा और ऐसा मै सिर्फ तभी देखता हूँ जब क्रिकेट का खेल पूरे जोश से शुरू हो चूका हो.

क्रिकेट एक ऐसा खेल है जिसमे गजब का रोमांच है खिलाडियों के लिए बहुत सारा पैसा भी पर इस सब से बढ़ कर जो बात व्यक्तिगत रूप से मुझे पसंद है वो है भारत में क्रिकेट का सिर्फ एक खेल न हो कर धर्म होना. मै पहला व्यक्ति नहीं हूँ जो ये कहरहा है की भारत में क्रिकेट एक धर्म है और ना ही मै आखरी व्यक्ति होने वाला हूँ. ये ऐसा धर्म है जिसका न कोई धर्म गुरु है न ही कोई पवित्र किताब लेकिन इस धर्म को मानने वाले पूरे भारत वर्ष में हैं और सभी की श्रद्धा और भक्ति क्रिकेट नाम के इस धर्म के लिए समान है.

क्रिकेट धर्म के अनुयायियो को ढूँढने के लिए आपको किसी तरह की तकलीफ उठाने की आवश्यकता भी नहीं है भारत में क्रिकेट के धर्म को मानने वाले जितने अनुयायी है वो हर महत्वपूर्ण क्रिकेट मुकाबले के दिन किसी पान के दुकान या फिर चाय के ठीओ पर मुह मरते मिल जायेंगे, जो बेचारे ऐसी जगह पर नहीं जा सकते वो रेडियो से कान चिपका कर रखते हैं और फिर भी कुछ बेचारे बच जाते हैं तो वो लोग इधर उधर से स्कोर क्या हुआ पूँछ पूँछ कर अपनी जिग्यासा शांत करते रहते हैं.

इस धर्म की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की इसमें कोई जाती नहीं होती, कोई सम्प्रदाय नहीं होता, कोई क्षेत्रवाद नहीं होता, कोई भाषावाद नहीं होता इस धर्म में कोई बड़ा नहीं होता और कोई छोटा नहीं होता सभी सिर्फ क्रिकेट प्रेमी होते हैं. इस धर्म के लोगो को एक दुसरे से संवाद के लिए भाषा की आवश्यकता भी नहीं है इनका काम सिर्फ स्कोर, विकेट, रन, शतक जैसे मामूली शब्दों से ही चल जाता है और चूंकि भाषा महत्वपूर्ण होती नहीं है तो भाषा के नाम पर भी अलगाव का कोई कारण नहीं बनता.

आज जब भी भारत की क्रिकेट टीम पाकिस्तान के साथ कोई महत्वपूर्ण मुकाबला जीत लेती है तो ऐसा लगता है जैसे दिवाली, ईद, ओणम और बैशाखी एक साथ आ गया है, मुकाबला जीतने के बाद हर शहर के क्रिकेट धर्मानुयायी हजारों की तादाद में उस शहर के महत्वपूर्ण चोको पर एकत्रित होना शुरू हो जायेंगे और एक दुसरे के साथ गले मिल कर बधाईयाँ देते हुए जश्न मनाएंगे और ये लोग एक दुसरे से पूंछेंगे भी नहीं की आपका धर्म क्या है, जात क्या है, तबका क्या है या भाषा क्या है क्यूंकि उस समय सभी का एक ही धर्म होता है, सबकी भाषा एक होती है, सबका तबका और जात भी एक ही होती है.

कभी कभी सोचता हूँ की क्यों हमारे देश में क्रिकेट को ही असली धर्म घोषित नहीं कर दिया जाता इससे कम से कम हम आपस में एक दुसरे से जाति, धर्म, भाषा, और संप्रदाय जैसी फालतू वजहों से लड़ना झगडना तो बंद कर देंगे.

मैंने पढ़ा था की अकबर ने सामाजिक एकता के लिये एक नया धर्म शुरू किया था जिसमे सभी लोग एक सामान थे, न कोई बड़ा था न कोई छोटा और उसने उस धर्म का नाम रखा था " दीन ए इलाही " हालाकि ये मजहब तब कुछ ज्यादा चला नहीं था लेकिन अगर अकबर आज के ज़माने में होता और वो ऐसा धर्म को शुरू करना चाहता तो धर्म का नाम होता " दीन ए क्रिकेट" और मै दावे के साथ कह सकता हूँ की वो धर्म बहुत प्रचलित होता और भारत की एकता और अखंडता मै एक अहम पड़ाव बन जाता

इस विषय पर लिखने को तो एक पूरी किताब भी लिखी जा सकती है लेकिन इस लेख का अंत करते हुए मै मात्र इतना लिखना चाहूँगा की अगर क्रिकेट आप का भी धर्म है तो उसे आपका मूल धर्म बना ले और देश की विकास में अपना कीमती योगदान दें.

Saturday, February 12, 2011

हम तो मूलत: इसी देश से हैं :पिताजी की दी हुई सीख


आज जब भी कोई मुझसे पूंछता है की आप मूलत: कहा से हैं तो मेरा जवाब होता है "इसी देश से हूँ पूर्ण रूप से भारतीय"

हालाकि हमेशा से ऐसा नहीं था आज से ८ साल पहले कोई ये सवाल करता था तो मेरा जवाब होता था जी मै मूल रूप से उत्तर प्रदेश से हूँ लेकिन एक दिन किसी पारिवारिक समारोह में पिता जी के सामने किसी ने यही प्रश्न मुझसे पूँछ लिया और मेरे उत्तर पर मुझे पिताजी से एक बड़ी ही प्यार भरी चपत और ऐसी सीख मिली जो की मै अपने जीवन में न कभी भूलना चाहूँगा न ही भूल सकता हूँ

मेरे उत्तर को सुन कर पिता जी ने प्यार से मेरे सर पर चपत लगते हुए कहा "बेटा हम उत्तर प्रदेश से नहीं इस देश से हैं पूरी तरह से भारतीय"

पिता जी की इस बात से वहा बैठे कई लोगो के चेहरे पर एक प्रश्नवाचक चिन्ह दिखाई देने लगा और मै शांति से पिता जी के आगे आने वाले शब्दों का इन्तेजार करने लगा।

और जो पिताजी ने कहा उन शब्दों को पूरी तरह से वैसा ही लिखने की कोशिश कर रहा हूँ

पिता जी ने कहना शुरू किया "हम किसी एक प्रदेश या क्षेत्र के नहीं है बल्कि पूरा देश ही हमारा है और हम पूरे देश के हैं। जब मै मेरी माँ के पेट में आया तो माँ और पिता जी महराष्ट्र में थे, मेरा जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ और मेरे मुह में जाने वाला आनाज का पहला दाना महाराष्ट्र में कमाए हुए पैसे से गया था, जो भी मेरा अक्छर ज्ञान है वो सब मैंने बिहार में सीखा और मेरी शादी एक ऐसी लड़की से हुई जिसने आपना आधा जीवन गुजरात में बिताया था, घर से भागने के बाद पहली बार मै पंजाब गया और वहा जीवन में अपने पैरो पर खड़े होने का पहला सबक सीखा, और उसके बाद दिल्ली, बम्बई, गुजरात, राजस्थान में काम करना सीखा, मध्य प्रदेश में मुझे मेरी पहली स्थायी नौकरी मिली और जिस इन्सान ने मुझे नौकरी दिलवाई थी वो एक दक्षिण भारतीय था। अब मध्य प्रदेश में मेरा घर है यहाँ मेरे बच्चे पले बढे लेकिन इनकी मंजिल कहा है वो किसी को नहीं पता तो फिर हम सिर्फ उत्तर भारतीय कैसे हुए। मेरे लिए पूरा देश मेरा है और मै इस देश का और किसी के पास प्स इस बात का अधिकार नहीं है जो मुझे ऐसा कहने से रोक सके, और जब मै इस देश का हूँ तो मेरी संतान भी इसी देश की हुई ना।"

मेरे पिता जी की इस बात से वो कई दिनों तक वहा बैठे कुछ पढ़े लिखे उत्तर भारतियों की आँख में खटकने लगे थे उन्होंने पिता जी को अनपढ़ कह कर उनका विरोध भी किया था लेकिन मेरे पिता जी आपनी बात पर अडिग थे और उन्होंने हमें सिर्फ यही सिखाया था की हम मूलतः इस देश से हैं किसी प्रदेश से नहीं।

उन पढ़े लिखे व्यक्तियों ने पिता जी से ये भी कहा था की अपनी जड़ो से अपनी मिटटी से प्यार करना तो सीखो और मेरे पिता जी का जवाब था "इस देश की पूरी मिटटी मेरी ही है तो मै क्यों किसी एक जगह की मिटटी को मेरा कहूं आज आप कहते हैं की मै आपने आप को उत्तर भारतीय कहूं उसके बाद उत्तर प्रदेश मे जिस जिले का मै हूँ वह लोग कहेंगे की मै जिले को आपना कहूं फिर जिले के बाद गाँव और गाँव के बाद टोले (गाँव के अन्दर एक हिस्सा) को मेरा कहूं और आप ये चाहेंगे की मै हर छोटी जगह के लिए बड़ी जगह से कम भूमि भक्ति रखूँ तो ऐसी भूमि भक्ति आप कीजिये मेरे लिए तो पूरे देश में ही ये सभी कुछ शामिल है".

पिताजी की भावनाओ पर वहा बैठे कुछ प्रकांड पंडितो द्वारा ये भी व्यंग्य किया गया था की अनपढ़ इन्सान को अपनी ही बात बड़ी दिखती है लेकिन मुझे मेरे पिता पर घमंड है और उनकी सिखाई इस सीख पर मुझे गर्व है क्योंकि मुझे मेरे पिताजी ने देशवासी बनना सिखाया था न की प्रदेशवासी मुझे एकता सिखाई थी अलगाव नहीं

सामन्यतः मै ब्लॉग पर कहता हूँ की आपनी राय दें लेकिन इस पोस्ट के लिए कहूँगा की अगर आपकी राय मेरे पिता जी की राय से अलग है तो कृपया अपने पास रखे मुझे नहीं चाहिए आपकी राय

Thursday, February 10, 2011

अपनी अपनी ईमानदारी

ट्रेन के वातानुकूलित तीसरे दर्जे में रात का सफ़र अभी अभी ख़त्म हुआ ही था की रेल सेवा का कर्मचारी कम्बल एकत्रित करने लगा

मेरे ही कम्पार्टमेंट में आ कर वो कर्मचारी कंबलो की गिनती करने लगा और गिनती पूरी होने पर अपना सर पकड़ कर बैठ गया.

एक व्यक्ति ने पूंछा क्या हुआ भाई तो जवाब मिला आज फिर ३ कम्बल कम है कोई फिर से कम्बल ले कर चला गया

दुसरे व्यक्ति ने आदर्शवादिता दिखाते हुए कहा बड़ा ख़राब जमाना आ गया है, लोग ३०० रुपये के कम्बल के लिए भी अपना इमान ख़राब कर लेते हैं,

मैंने कहा अपनी अपनी ईमानदारी, चूंकि मै अपना कम्बल ले कर गया था तो फिर से कम्बल ओढ़ कर सो गया.

थोड़ी देर बार उठा तो देखा ये व्यक्ति आगे ही एक छोटे स्टेशन पर सारा सामान ले कर उतरने की तय्यारी कर रहे हैं जबकि इन्हें अभी आगे और जाना था, हमने पूंछा तो बोले यहाँ एक दोस्त रहता है उससे मिल कर दो घंटे बाद वाली गाड़ी से चला जाऊँगा

थोड़ी देर बाद में हमारे एक सहयात्री लघुशंका से निपट कर वापस आये तो उन सज्जन के बारे में पूंछने लगे, जब हमने बताया की वो तो पिछले स्टेशन पर ही उतर गए तो अब ये सज्जन सर पकड़ कर बैठ गए

पूंछने पर पता चला की लघुशंका पर जाने के पहले वो अपने सामान की हिफाजत की जिम्मेदारी उन आदर्शवादी महोदय को दे कर गए थे और वो ही सामान ले कर चम्पत हो गए

मेरे मुह से फिर एक बार निकला "अपनी अपनी ईमानदारी"

Monday, February 7, 2011

छोटी छोटी खुशियों का जीवन में बड़ा महत्व

मै फिर से लिखना शुरू करना चाहता था लेकिन कहा से लिखू और क्या लिखू कुछ समझ ही नहीं आ रहा था अभी जब जबरन सोने की कोशिश की तो दिमाग में फिल्म का एक द्रश्य घूमड़ने लगा और मुझे लगा की मै फिर से लिखने की शुरुवात शायद यही से कर सकता हूँ.

मुझे सभी शब्द अक्षरश तो याद नहीं है लेकिन द्रश्य कुछ यूं था की एक डॉ अपने मरीज को कहता है "रॉय ये मत देखो की जिंदगी में कितना वक्त बचा है पर ये देखो की तुम अपने बचे हुए वक्त में कितनी जिंदगी जी सकते हो, तुम चाहो तो एक पल में पूरी जिंदगी जी सकते हो और हो सकता है की पूरी उम्र में भी कभी जी न सको."

मुझे लगता है की हम सब आज अपनी भाग दौड़ भरी जिंदगी में कभी जीते नहीं है पर बड़ी बड़ी खुशियों के लिए मरते रहते हैं और उन बड़ी खुशियों की आस में सामने आने वाली छोटी छोटी ढेरो खुशियों पर ध्यान न देकर हमेशा दुखी रहते हैं. मै मेरा व्यक्तिगत अनुभव यदि कहूं तो मेरे अनुसार किसी भी बड़ी ख़ुशी से मिलने वाला आनंद भी कभी स्थायी नहीं रहता है फिर जाने क्यों हम सिर्फ बड़ी खुशियों के पीछे भागते हैं और छोटी ख़ुशी या छोटे आन्नद को उपेक्छीत कर देते हैं जबकि छोटी खुशिया और आनंद हमेशा मिलते रहते हैं और बड़ी खुशिया गाहे बगाहे ही दरवाजा खटखटाती हैं.

इसी सन्दर्भ में एक और फिल्म का एक द्रश्य याद आ रहा है जिसका मै यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा.

यह द्रश्य कुछ ऐसा है की घर का बुजुर्ग मुखिया मासिक वेतन मिलने पर अपने सारे रुपये मेज पर रख देता है और पत्नी से कहता है की अपनी पसंद का एक नोट उठा ले और जवाब में पत्नी एक सबसे छोटा नोट उठा कर रख लेती है

ये देख कर जवान बेटा कहता है की "माँ तू बहोत भोली है बाबूजी पिछले ३० सालो से हर महीने तेरे सामने इसी तरह से रुपये रख देते हैं और तू हर बार सबसे छोटा नोट उठा लेती है, तू कब समझेगी की रुपये की कीमत उसके रंग से नहीं उस लिखे नंबर से होती है"

इस बात को सुन कर माँ ने जवाब दिया "आज से तीस साल पहले जब पहली बार मुझे नोट चुनने के लिए कहा गया था और तब मै बड़ा नोट उठा लेती तो ये किस्सा उसी दिन ख़त्म हो जाता और फिर मुझे हर महीने ये छोटा नोट कैसे मिलता, तो बताओ एक बार के बड़े नोट के लालच के लिए मै हर महीने मिलने वाले छोटे नोट को क्यों छोड़ दूं। "

हमारी जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है जिसमे हमें हर मोड़ पर छोटी खुशिया मिलती रहती है लेकिन हम बढ़ी खुशियों की लालच में इन छोटी खुशियों को छोड़ देते हैं और कभी बढ़ी खुशियों से भी आनंद नहीं उठा पाते।

कुछ लोगो के पास ये बहाना भी होता है की हमें तो कभी ऐसी छोटी ख़ुशी नहीं मिली तो मेरा जवाब है की जनाब आप आस पास देखिये तो सही आपको चारो तरफ आप चारो तरफ खुशियों और आनंद से घिरे हुए हैं बस आपको आपने आँख और कान खोलने की जरूरत है ये ख़ुशी आपको आपके बच्चे की किलकारी में भी मिल सकती है और पत्नी की मुस्कान में भी।

ये आनंद आप अपने पिता के आशीर्वाद में भी पा सकते हैं और मित्रो के साथ बैठ कर एक प्याली चाय पीने में भी, आवश्यकता है तो सिर्फ इस आनंद और ख़ुशी को अनुभव करने की। आप एक बार जब इस और ध्यान देंगे तो खुद पाएंगे की जीवन में इन छोटी छोटी खुशियों का कितना महत्व है और इनसे कितना आनंद प्राप्त होता है

Saturday, February 5, 2011

मेरा पहला नमश्कार

सभी को मेरा नमश्कार

मैंने blogging की दुनिया में अभी अभी जन्म लिया है और अब मै अपने अंदर के लेखक मन को फुसलाने के लिए अपने लेखो को स्वयं के द्वारा निर्मित एक स्थान प्रदान करने की चेष्टा कर रहा हूँ जिसके लिए मैंने ब्लॉग्गिंग को चुना है

हो सकता है की मै एक अच्छा लेखक नहीं हूँ लेकिन ये आशा करता हूँ की यहाँ सभी अच्छे लेखको के द्वारा मुझे मार्गदर्शन अवश्य मिलेगा जिससे मै भी एक अच्छा लेखक और ब्लॉगर बन पाऊँमैंने मेरे एक परिचित जो की लेखक भी हैं से इस बारे में बात की तो उनका सुझाव था की मुझे मेरी कंप्यूटर अभियंता वाली नौकरी पर ही ध्यान देना चाहिए लेखन पर नहीं. उनके अनुसार लेखन जैसे कार्य मुझे जैसे व्यक्तियों के लिए नहीं हैं उनके अनुसार मुझे सिर्फ कंप्यूटर से सम्बन्ध रखना चाहिए कलम से नहीं ये बात और है की उन्होंने मेरे द्वारा लिखे एक भी शब्द को आज तक नहीं पढ़ा है और न ही उन्हें ये पता है की मै मेरी नौकरी छोड़ चूका हूँ, मेरा एक मित्र जो की एक प्रेस में system Admin है उसके अनुसार मै अच्छा लिखता हूँ तथा मुझे मेरी अधूरी किताब पर फिर से कार्य शुरू कर देना चाहिए, इसी तरह के कुछ और उत्साह पूर्वक शब्दों को सुन कर मैंने मेरा पहला कदम आगे बढ़ा दिया है आगे इश्वर मालिक है.

मै आपको मेरे बारे में बता दूं पेशे से मै एक कंप्यूटर सिस्टम विश्लेषक (Computer System Analyst) हुआ करता था परन्तु अब मै मात्र एक शिक्षक हूँ जो छात्रों को कंप्यूटर सिखाता है तथा खुद लिखना और पेंटिंग करना सीख रहा है

उम्मीद करता हूँ आप सभी का सहयोग और सुझाव मुझे हमेशा प्राप्त होगा

भवदीय
संदीप
 
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